Thursday, April 23, 2009

उस बच्ची को नही मालूम

Sandeep kanwal

वह बच्ची, जिसकी उम्र
दस-बारह वर्ष के करीब है और जिसने
अपनी दो कोमल उँगलियों के बीच
फँसा रखे हैं पत्थर के दो चिकने टुकड़े
इस भीड़ भरी बस में
निकालने की करती है कोशिश
अपने गले से
अनुराधा पौडवाल की आवाज।
पत्थर के इन दो चिकने टुकड़ों से
निकालती है वह
ढेर सारी फिल्मी धुनें,
भगवान के भजन और
सफर के गीत।

इस भीड़ भरी बस में भी
लोग सुनते हैं उसके छोटे गले से
अनुराधा पौडवाल की छोटी आवाज
और देखते हैं
बहुत ही तेज गति से चलने वाली
उसकी दो उँगलियों के बीच
पत्थरों का आपस में टकराना।
उस बच्ची को नहीं है मालूम
पत्थर के इन्हीं दो टुकड़ों से, जिनसे
वह निकालती है फिल्मों की धुनें और
जीवित रहने की थोड़ी सी गुंजाइश
उन्हीं पत्थरों के टकराने से निकलती है
चिंगारी।
उस बच्ची को नहीं है मालूम, जब
इस सृष्टि की हुई शुरुआत, तब
लोगों ने बसने से पहले, सबसे पहले
ईजाद की थी आग
इन्हीं दो पत्थरों को टकराकर।

आग जलती रहे

एक तीखी आँच ने

इस जन्म का हर पल छुआ,

आता हुआ दिन छुआ

हाथों से गुजरता कल छुआ

हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,

फूल-पत्ती, फल छुआ

जो मुझे छूने चली

हर उस हवा का आँचल छुआ

... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता

आग के संपर्क से

दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में

मैं उबलता रहा पानी-सा

परे हर तर्क से

एक चौथाई उमर

यों खौलते बीती बिना अवकाश

सुख कहाँ

यों भाप बन-बन कर चुका,

रीता, भटकता

छानता आकाश

आह! कैसा कठिन

... कैसा पोच मेरा भाग!

आग चारों और मेरे

आग केवल भाग!

सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,

पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,

वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप

ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे

जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

Sandeep kanwal Bhurtana

Tuesday, April 21, 2009


सन्दीप कंवल


फैशन का जमाना छोरो, करर्‌या कती हंगाई।
बेरा भी पाटै कोन्या, माणस सै क लुगाई॥
छोरे-छोरी कट्ठे जाकै, बदलमा कंटिग करावै सै,
लाण्डे कुड़ते पहरे दोनूं, टाइट जिन्स फंसावै सै,
जमाने की इस चाल तै हामनै पाछै नै धिकावैं सै,
रिफल-रिफल चालैं गाला म्हं, लोगां नै हंसाव सै,
हेयर ड्र्‌ैसर बण भकावैं सैं, आजकाल कै नाई।
बेरा भी पाटता कोना, माणस सै के लुगाई॥
70 साल की बुढ़िया होरी, अन्टी कुवावण लागी,
बुढापे के म्हं भी वा , सुरखी,पोडर लावण लागी,
माथे उपर फैन्सी टीका, रजकै सजावण लागी,
रलदू की मां भी छोरो, ब्यूटी पार्लर चलावण लागी,
द्यौली भी बणावण लागी, वा ताई भरपाई।
बेरा भी पाटै कोन्या, माणस सै कै लुगाई॥
रै फैशन तेरा बीज मरियो, गोरा काला होरा सै,
पेट उगाड़ा सुण्डी दिखै, मोटा चाला होरा सै,
60 साल का बूढे+ का, सिर काला होरा सै,
फोन पै बतलाव दादी, जान का गाला होरा सै,
सबका राम रूखाला होरा सै, आच्छी रौनक आई।ं
बेरा भी पाटता कोना, माणस सै क लुगाई॥
टवेंटी-टवेंटी का खेल चालरा, गिंडी चकरी काटगी,
छक्का मारा छोरै नै, तलै तै पैंट पाटगी,
यू भूंडी सुंडी छोरी भी कसूती रंग छाटगी,
सैन्टरफ्रैस टॉफी नै भी वा आंगलिया गैल चाटगी,
सारा जणै नैं आंटगी, या फैषन की करड़ाई।
बेरा भी पाटता कोना, माणस सै क लुगाई॥
कूण म्हं पड़ा बूढ़ा रोवै, देवैं पाणी का गलास नहीं,
अपणे बणे पराये लोगों इब किसे तै आस नहीं,
टूटण लागी डोर प्यार की, लागै कुछ भी खास नहीं,
रिसता पै कालख पूतगी, रह्‌या किते विस्वास नहीं,
बेटा बाप नै आंख दिखावै, दुष्मन बणगी मां जाई।
बेरा भी पाटता कोना, माणस सै क लुगाई॥

फैसन की इस आंधी म्हं, भूलगे घूंघट गाती,
उंच नीच के काम करण म्हं सरम कती न आती
काण कायदा तोड़या सारा, तोड़े सारी रीति रिवाज,
दिखावा की इस भीड़ म्हं लोगो, संस्कृति की दबी आवाज,
भुरटाणे आला कहवै आज, छोड़ो या बुराई॥
बेरा भी पाटता कोना, माणस सै क लुगाई॥